हिन्दुस्तान में उर्दू सहाफ़त का आग़ाज़

 उर्दू सहाफ़त का माज़ी भी रोशन था और मुस्तक़बिल भी ताबनाक है. मुल्क भर में उर्दू सहाफत का 200 सालां जश्न मनाया जा रहा है,  मुल्के अज़ीज़ हिन्दुस्तान में उर्दू सहाफ़त का आग़ाज़ आज से 200 साल क़बल 1822 में हुआ था, 27 मार्च 1822 को पहला उर्दू अखबार जाम-ए-जहां नुमा कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था. जो हरिहर दत्ता ने निकाला था. ये वो दौर था जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत पैर फैला रही थी और हिंदुस्तान के अंदर आजादी चिंगारी सुलग रही थी. इस आजादी की चिंगारी की जुबान में उस वक्त में उर्दू अखबार बने थे. क्योंकि तब हमारे देश में कामकाज की भाषा उर्दू और फारसी हुआ करती थी लिहाजा ज्यादातर लोग उर्दू-फारसी में ही पढ़ाई किया करते थे इसलिए उर्दू की पहुंच उस वक्त काफी नीचे तक थी. इसी को भुनाने और जनता तक देश की आवाज पहुंचाने के इरादे से जाम-ए-जहां नुमा को प्रकाशित किया गया और ऐसे उर्दू पत्रकारिता की शुरुआत हुई. लगभग सभी अखबार उस वक्त भारतीय लोगों में आजादी की अलख जगाने का काम कर रहे थे. जिसकी वजह से उर्दू अखबारों की लोकप्रियता काफी बढ़ रही थी.  इस 200 साल के सफ़र में उर्दू सहाफ़त में काफ़ी उतार चढ़ाव देखा गया जो आज भी जारी है.  उर्दू सहाफ़त के दो सौ साला कामयाब इतिहास का जश्न पुरे मुल्क में मनाया जा रहा है, खुशनसीबी है कि हम उर्दू पत्रकारिता का 200 साल पूरा होते देख रहे हैं और हम  पत्रकारिता का हिस्सा हैं। उर्दू सहाफत इमोशनल सहाफत है अगर आपको उर्दू ज़बान से मुहब्बत होगी तो आप उर्दू सहाफत से जुड़ेंगे। 1 जनवरी 1936 को रेडियो और 15 अगस्त 1965 को टीवी के आने से पत्रकारिता की दुनिया को पंख लग गए. जिस मजबूरी ने एक जमाने में स्थानीय अखबार निकालने को तरजीह दिलवाई टीवी और रेडियो ने ये मजबूरी खत्म कर दी और पत्रकारिता ने शहरों की सरहदों की बेड़ियां तोड़ हिंदुस्तान की आवाज के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. लेकिन उर्दू पत्रकारिता के लिए यहीं से चीजें मुश्किल होती गईं. जब 90 के दशक में डीडी न्यूज से निकलकर पत्रकारिता प्राइवेट हाथों में जा रही थी. तो उर्दू पत्रकारिता को वाकई एक खतरे का सामना हुआ जो अभी भी बरकरार है. कुछ छोटे-मोटे चैनल्स को छोड़ दिया जाये तो टीवी पत्रकारिता से उर्दू लगभग गायब है.  सहाफत अब सहाफत कहाँ रही , सहाफत के मायने ही बदल गये कभी सहाफत हक और सच बात कहने के लिए जानी जाती थी और मुल्क की आज़ादी में उर्दू सहाफत का जो दखल रहा उसे फरामोश नही किया जा सकता सहाफत को जम्हूरियत का चौथा सुतून माना गया लेकिन वक़्त के साथ जब सहाफत ने अपना मिजाज बदला तो सहाफत ने तिजारत की शक्ल इख़्तियार कर ली और जब सहाफत ने तिजारत की शक्ल इख़्तियार की तो सहाफत के मायने ही बदल गये जहाँ सहाफत का शुमार पहले इंसाफ ने लिए जद्दोजहद करने वालों में होता था वही आज सहाफत का जो रद्दे अमल है उससे मेरे हिसाब से इसे जह्म्हुरियत का चौथा सुतून कहने पर भी जम्हूरियत लफ्ज़ की तौहीन होगी अगर सहाफ़त हक़, अदल,ख़ैर और फ़लाह के लिये काम करे तो इंसानियत के लिये इससे मुफ़ीद ताक़त कोई नहीं और अगर सहाफ़त में बिगाड़ आ जाये और वो कीज़ब, बातिल,शर और फ़साद के लिये ही सर गरम अमल हो जाये तो फ़िर नौ ए इंसानी के लिये इससे ज़्यादा मोहलिक दूसरी कोई ताक़त नहीं। पत्रकारिता  का इतिहास हिंदुस्तान में बहुत पुराना है. रीजनल भाषाओं से हिंदी-अंग्रेजी और अखबार-रेडियो-टीवी से होते हुए अब पत्रकारिता डिजिटल दुनिया में पहुंच चुकी है. लेकिन इस सबके बीच उर्दू पत्रकारिता  कहां खड़ी है. ये बात आज हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उर्दू पत्रकारिता ने आज 200 साल पूरे कर लिए हैं. मैं दिल की गहराइयों से उर्दू सहाफत के सभी नामचीन हस्तियों को खिराज-ए-अक़ीदत पेश करता हूँ| एक रिपोर्ट के मुताबिक 1950 में हिंदुस्तान में 415 उर्दू के अखबार निकला करते थे जो अब बढ़कर 6 हजार से ज्यादा हो गए हैं. तो अकबर इलाहबादी के इस शेर के साथ हम अपना लेख खत्म करते हैं-


ना तीर, खंजर, तलवार निकालो


जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो ...


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