मलिक अम्बर इतिहास


 #_मलिक_अम्बर 

13 मई 1626 यौमें वफात


"मलिक अम्बर या अम्बर मलिक" एक हब्शी ग़ुलाम था, वह तरक़्क़ी करके वज़ीर के पद तक पहुँचा था, उसने पहली बार 1601 ई. में उस समय नाम कमाया, जब उसने मुग़ल सेना को हरा दिया था, मलिक अम्बर एक 'अबीसीनियायी' था और उसका जन्म 'इथियोपिया' में हुआ था, उसके प्रारम्भिक जीवन की विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, ऐसा अनुमान है कि उसके निर्धन माता-पिता ने उसे बग़दाद के ग़ुलाम-बाज़ार में बेच दिया था, बाद में उसे किसी व्यापारी ने ख़रीद लिया और उसे दक्कन (दक्षिण भारत) ले आया, जहाँ की समृद्धि उस काल में बहुत लोगों को आकर्षित करती थी, 1626 ई. में मलिक अम्बर की मृत्यु हुई,


मलिक अम्बर अहमदनगर में बस गया था, चाँद सुल्तान की मृत्यु के बाद वह अपनी योग्यताओं के बल पर तरक़्क़ी करके अहमदनगर के वज़ीर के पद पर पहुँच गया, वहाँ का राज्य प्रबन्ध अनेक वर्षों तक उसके हाथ में रहा, वह जितना योग्य सिपहसलार था, उतना ही योग्य राजनेता भी था, उसमें नेतृत्व के सहज गुण थे और मध्यकालीन भारत के सबसे बड़े राजनीतिज्ञों में उसकी गणना की जाती थी, मलिक अम्बर ने अहमदनगर राज्य की उत्तम शासन व्यवस्था की थी, इसके अलावा उसने राज्य में मालगुज़ारी की व्यवस्था भी बड़े सुन्दर ढंग से की, सारी कृषि योग्य भूमि को उर्वरता के आधार पर चार श्रेणियों में विभाजित कर दिया और लगान स्थायी रूप से निश्चित कर दिया गया, जो नक़द लिया जाता था। लगान की वसूली राज्य के अधिकारी गाँव के पटेल से करते थे,


मलिक अम्बर ने मुर्तज़ा निज़ामशाही के प्रभावशाली सरदार चंगेज़ ख़ाँ के यहाँ काफ़ी तरक़्क़ी की थी, जब मुग़लों ने अहमदनगर पर आक्रमण किया, तो मलिक अम्बर अपना भाग्य आजमाने के लिए बीजापुर चला गया, लेकिन जल्दी ही वह वापस आ गया और चाँदबीबी के विरोधी हब्शी, अबीसीनियायी दल में सम्मिलित हो गया। अहमदनगर के पतन के बाद अम्बर ने एक निज़ामशाही वंश के शाहज़ादे को ढूँढ निकाला और बीजापुर के शासक की मदद से उसे मुरतजा निज़ामशाह द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठा दिया, वह स्वयं उसका पेरुबा (संरक्षक) बन गया, पेशवा का पद अहमदनगर की रियासत में पहले से प्रचलित था, अहमदनगर के पतन और मुग़लों द्वारा बहादुर निज़ाम शाह की गिरफ्तारी के बाद इस बात की पूरी सम्भावना थी कि अहमदनगर रियासत के टुकड़े हो जाते और पड़ोसी रियासतें उन पर अधिकार कर लेतीं, किन्तु मलिक अम्बर के रूप में एक योग्य व्यक्ति के उदय की वजह से ऐसा नहीं हो सका, मलिक अम्बर ने काफ़ी बड़ी मराठा सेना (बारगी) इकट्ठी कर ली, मराठे तेज़ गति वाले थे और दुश्मन की रसद काटने में काफ़ी होशियार थे, मलिक अम्बर ने मराठों को गुरिल्ला युद्ध में भी निपुणता प्रदान कर दी थी, यह गुरिल्ला युद्ध प्रणाली दक्कन के मराठों के लिए परम्परागत थी और वे इसमें और भी निपुण हो गए, लेकिन मुग़ल इससे अपरिचित थे, मराठों की सहायता से मलिक अम्बर ने मुग़लों को बरार, अहमदनगर, और बालाघाट में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना कठिन कर दिया,


मुग़ल सेना दौलताबाद पर अधिकार करना चाहती थी, जो कि अहमदनगर सल्तनत की राजधानी थी, 1601 ई. में राजधानी यहीं स्थानान्तरित कर दी गई थी, उसी के उद्योग से अहमदनगर पर क़ब्ज़ा करने के जहाँगीर के सारे प्रयत्न विफल हो गए, उसने अहमदनगर को बादशाह जहाँगीर के पंजे से बचाने की जी तोड़ कोशिश की, लेकिन 1616 ई. में जब बहुत बड़ी मुग़ल सेना ने अहमदनगर पर चढ़ाई की तो मलिक अम्बर को आत्म समर्पण करना पड़ा, उस समय शाहज़ादा ख़ुर्रम (शाहजहाँ) मुग़ल सेना का नेतृत्व कर रहा था,


" मलिक अम्बर ने बड़े सम्मान के साथ जीवन बिताया और 1626 ई. में बहुत वृद्ध हो जाने पर उसकी मृत्यु हुई, उसकी मृत्यु के बाद ही अहमदनगर सल्तनत को मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित किया जा सका "


"फ़तेह ख़ाँ" जो मलिक अम्बर का पुत्र था,वह अहमदनगर के निज़ामशाही वंश का वर्षों तक वज़ीर रहा, फ़तेह ख़ाँ के अन्दर अपने पिता के समान वफ़ादारी नहीं थी, वह अहमदनगर के उपान्तिम शासक मुरतज़ा निज़ामशाह द्वितीय का वज़ीर था, फ़तेह ख़ाँ ने 1630 ई. में निज़ामशाह की हत्या कर उसके युवा पुत्र हुसेन को अहमदनगर का शासक घोषित कर दिया, 1631 ई. में उसने बड़ी बहादुरी के साथ मुग़ल सम्राट शाहजहाँ की फ़ौज से दौलताबाद दुर्ग की रक्षा की,

मलिक अम्बर ने दौलताबाद की बड़ी ही मज़बूत क़िलेबंदी की थी, मुग़ल सम्राट शाहजहाँ ने 1633 ई. में फ़तेह ख़ाँ को लालच दिया, लालच में आकर फ़तेह ख़ाँ ने दौलताबाद का दुर्ग मुग़ल सम्राट के हवाले कर दिया, शाहजहाँ ने अहमदनगर के अन्तिम निज़ामशाह हुसेन को ग्वालियर के क़िले में आजीवन क़ैद रखा, फ़तेह ख़ाँ मृत्यु पर्यन्त मुग़ल बादशाह की सेवा में ही रहा,


"मलिक अम्बर" प्रसिद्धि मध्यकालीन भारत के सबसे बड़े राजनीतिज्ञों में उनकी गणना की जाती थी,


मलिक अम्बर को राजनीतिक कूटनीति में महारत हासिल थी वो अहमदनगर निजाम शाही रियासत में वजीर के पद तक पहुँच गए थे उन्होंने अपने पद पर रहते हुए जनता के लिए कई बेहतर कार्य भी किए उन्होंने किसानों को जमीन देने की व्यवस्था शुरू कि,


अहमदनगर की रियासत का लगभग पतन हो चुका था. ऐसे में मलिक अम्बर ने निजामशाही के एक शहजादे को ढूंढ निकाला उन्होंने बीजापुर के शासक की मदद से उसे ‘निजामशाह द्वितीय’ के नाम से अहमदनगर की गद्दी पर बैठा दिया वे खुद उसका पेशवा बन गये, जो वहां की रियासत में इसका पहले से ही चलन था,


औरंगाबाद को पहले खड़की (पथरीली ज़मीन) कहा 

जाता था मलिक अम्बर ने रियासत को मजबूत करने की ठानी उन्होंने सैन्य व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई ठोस कदम उठाये मलिक अम्बर ने अपनी कुशल राजनीतिक सोच से अपने आस-पास के मराठा सैनिकों की एक बड़ी फ़ौज तैयार कर ली उन्हें मुगलों से लड़ने के लिए गुरिल्ला युद्धकला में भी अभ्यास कराया,


इतिहासकारों की मानें तो एक वक़्त ऐसा आया जब उनकी बड़ी सेना में 40 हजार के करीब मराठा सैनिक व लगभग 10 हजार हब्शी भी शामिल थे,


#हब्शी

तेरहवीं सदी में भारत स्थानीय राजाओं के महल में 'ग़ुलामों' का चलन था, जिन्हें 'हब्शी' कहा जाता था, मुस्लिम देश अरब और अफ्रीका से भारत के पुराने व्यापारिक रिश्ते थे, इन्हीं देशों से भारत में ग़ुलाम लाये जाते थे, अफ्रीका से आने वाले ग़ुलाम को ही 'हब्शी' कहा जाता था, इनका क़द ऊंचा क़द और शरीर की गठन सुगढ़ होती थी, इनका रंग गहरा और बाल घुंघराले होते थे, हिन्दी साहित्य और इतिहास में 'हब्शी' शब्द का प्रयोग मिलता है,


हब्शी शब्द मूल रूप से सेमेटिक शब्द है, इसके कई रूप है मसलन हब्शी, हबशी, हबसा आदि, अरबी में इसका एक रूप है हबासत जो सेमेटिक धातु हब्स्त का रूप है, आमतौर पर यह शब्द उत्तर पूर्वी अफ्रीकी समुदाय के लोगों के लिए इस्तेमाल होता था, ख़ासतौर पर इथियोपिया, इरिट्रिया आदि के संदर्भ में, अरबी में एक शब्द है अल-हबाशात यानी इथियोपिया के लोग, अलहबाशा ने ही यूरोपीय भाषाओं में जाकर अबीसीनिया का रूप लिया, गौरतलब है कि इथियोपिया का पुराना नाम अबीसीनिया ही था, गौरतलब है कि ग़ुलाम वंश की रजिया सुल्तान के प्रेमी का नाम याकूत था जो एक 'अबीसीनियाई ग़ुलाम' ही था, रजिया तेरहवीं सदी में दिल्ली के तख्त पर बैठी थीं,

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